यह कविता, मैंने दुर्गा पूजा के अवसर पर, उन बंगला बोंधुओं के लिए लिखी है, जो पूजा पर विदेश में अपनी माँओं से दूर हैं. उन्हें सप्तमी पर कैसा लगा होगा? मैंने एक दृश्य खींचा है. आशा करता हूँ की इसे पढ़कर आप इसे सराहेंगे. मैं माफ़ी चाहूँगा अगर आप में से कुछ रो पड़े तो , मैंने एक संदेश दिया है बोंधू ,लौट आइये , घर की रोटी और माँ का प्यार सबसे बड़ा सुकून हैं ,आप जिसे अच्छी जिंदगी कहते हैं उससे आपको कोलेस्ट्रोल बीपी डायबिटीज़ और फिजूल खर्ची के सिवा कुछ ज्यादा नही मिलता
ज़रा सोचिये ?
इक पाती बेटे की माँ के नाम
सप्तमी पर
पूजा पर है लिक्खी पाती,
मुझको आज के दिन है आती,
याद हमेशा सुबह तुम्हारी,
सांवली सलोनी शक्ल प्यारी-प्यारी,
क्यों न खनके चूड़ी चाबी,
रखती क्यों ना यहाँ कुलाबी ,
जेवर क्या ना पह्नाओगी,
भोर पे गीत क्या ना गाओगी,
क्या ना होगा धुप दिया-बत्ती,
चाधाओगी की नहीं पान की पत्ती,
फल-फूल मिष्टी-सुपारी
ना खिलऊगी आलू भाजा लूची गिल्लोरी
ना वो सिन्दूर ना आलता
यह कैसा मुगालता
न गूंजती हंसीं किलकारी
न खुलेगी धाकाई भरी अलमारी
तुमने मुझे काहे दी भिक्षा
क्या इसी दिन के लिए दी थी शिक्षा
माँ काहे की मैंने इतनी पढ़ाई
न ले सका शुभ आशीष जब तुम्हारी याद आई
परदेस की श्रृष्टि में न भ्रिश्ती न मिष्टी
ऐ सी की हवा है तेरी गरम साँसे नहीं
शोवेर की बोछार गर्म
ठण्डी कभी न बही
ना हाथ गाड़ी न ट्राम भोपू
गर्म कोट क्या दे सकता है
तेरे सीने की गर्मी
क्या बर्गर पिज्जा में हैं
तेरी रोटी की नरमी
माँ मुझसे अब न सहा जाता
जब चिकागो पंडाल का संदेसा आता है
मुझे अब भी बेहाला का पंडाल भाता है
मेरा मन आज भी रोबिन्द्र शोंगीत गाता है
जल्द ही मुन्ना तुम्हारी गोद में सोयेगा
मुन्नी का कोमल हाथ
तेरी सूई में धागा पिरोयेगा
बहू तुम्हे बाल संवारेगी
बस एक हफ्ते में
तेरा बेटा
वापस लौट आयेगा
२५/०९/२००९ सप्तमी कलकत्ता
हाँ एक मैं सिर्फ़ ९० दिनों से कलकत्ते में हूँ
मलयाली हूँ राजस्थान में पला बढ़ा
बंगाली नही